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मध्यप्रदेश में अब शिक्षा व्यवस्था भी प्राईवेट हाथों में होगी ?

मध्यप्रदेश में अब शिक्षा व्यवस्था भी प्राईवेट हाथों में होगी ?

हाल ही में 53 जिलों के सरकारी स्कूलों को पीपीपी (पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप) मोड के तहत पतंजली शिक्षा संस्थान को सौंपकर मध्यप्रदेश में शिक्षा के निजीकरण की शुरुआत कर दी गई है। इधर मध्यप्रदेश की सरकार ने राज्यशिक्षा के लिए अध्यापकों को उपकृत कर ही दिया सातवें वेतनमान देकर। लेकिन क्रमोन्नति, वरिष्ठता, पुरानी पेंशन पर छोड़कर। इस बात से कई अध्यापक भी खासे उत्साहित है।  उनका कहना है कि अब सातवें वेतनमान का लाभ मिल तो गया। लेकिन सरकार ने जिस तरीके से अध्यापकों से सब कुछ छीन लिया। उसके बारे में अध्यापकों का एक बड़ा हिस्सा आज भी अनजान है।

अभी 53 जिलों में पीपीपी मॉड पर प्राथमिक एवं माध्यमिक सरकारी स्कूलों की बागडोर पतंजलि विद्यापीठ को सौंपकर निजीकरण की जो शुरुआत की गई  है। उसे पिछले दो साल से चले कोरोनावायरस काल में बड़ी चतुराई से किया गया है। शिक्षक इसे समझ नहीं पाए हैं। उन्हें वेतन मिल रहा है स्कूल लगभग बंद ही रहे इसलिए वे ख़ुश हैं । उनके साथ जो घात हुआ है वे देर सबेर जब समझेंगे तब तक बहुत देर हो जायेगी।

कुछ जागरूक शिक्षक  नेताओं का कहना कि यह भाजपा व कांग्रेस सरकार ने मिलकर बड़ी ही चालाकी से सबसे पहले शिक्षकों को, अध्यापकों, शिक्षाकर्मियों, संविदा शिक्षकों, गुरुजियों या अतिथि शिक्षकों में बांट दिया। ताकि ये कभी संगठित होकर सत्तासीन सरकारों के खिलाफ मोर्चा न खोल दें। इससे  शिक्षा के निजीकरण के विरूद्ध अध्यापक को लामबंद नहीं हो पाए। वे यह बराबर कह रहे हैं कि आने वाले दिनों में प्रदेश में शिक्षा का निजीकरण जिस तेजी से किया जाएगा। उससे तो प्रदेश के सभी सरकारी स्कूलों को सरकार किसी निजी संस्था या व्यक्तियों को सौंप देंगी।

अभी तो प्रायमिक और माध्यमिक शालाओं को लिया गया है। शिक्षक नेताओं का यह भी मानना है कि कहा ये जा रहा है कि शिक्षकों, अध्यापकों, शिक्षाकर्मियों, संविदा शिक्षकों, गुरुजियों या अतिथि शिक्षकों को तो वेतन सरकार ही देंगी ।लेकिन देखरेख व अन्य व्यवस्थाएं संबंधित निजी संस्था या व्यक्ति ही करेगा। यही योजना अध्यापकों के लिए आत्मघाती होंगी। ऐसा भी हो सकता है कि यह अध्यापकों की आखिरी पीढ़ी हो। आगे से अब स्कूलों में पढ़ाने के लिए संबंधित व्यक्ति या निजी संस्था अपने स्तर पर ही अपने खर्चे वहन करें। जैसा कि अब तक निजी स्कूलों में भारी भरकम फीस से विद्यालय चलाए जाते हैं।

यदि जल्द ही तमाम शिक्षकों ने इस बात को समझने में विलंब किया तो हाल मध्य प्रदेश राज्य परिवहन निगम, PWD, मप्र विद्युत विभाग (आज MPEB) जैसे विभागों की तरह ही हो जायेगा। जिस तरह ये विभाग पूरी तरह आज बर्बाद हो चुके हैं।अगला नंबर शिक्षा विभाग का है।जिसका अभियान प्रारंभ हो चुका है।

ख़तरा बढ़ा हुआ है चूंकि अध्यापकों के जो संगठन है और वह एक, दो व्यक्तियों के आसपास ही केन्द्रित होते है। यही कारण है कि सरकार को इससे कोई परेशानी नहीं होती। वर्तमान में जिस प्रकार से अध्यापक शिक्षक संघ व सरकार के बीच समझौते हो रहे है। उससे तो यही लगता है कि शायद शिक्षकों अध्यापकों से बड़ी चूक हो गई। अब पछताने के सिवा कोई रास्ता नहीं बचा है।

ज्ञात हो शिक्षा के निजीकरण के PPP (पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप) मोड का निर्माण एक लंबी प्रक्रिया के बाद अस्तित्व में आया है। सबसे पहले 1998 – 99 एनडीए सरकार (भाजपा समर्थित सरकार) ने अपने घोषणापत्र में इसकी वकालत की गई थी। उसके बाद जनवरी 2002 में प्रधानमन्त्री अटल बिहारी बाजपेयी के कार्यालय में पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप या पीपीपी मॉडल का गठन किया गया। इस बाबत सितम्बर 2003 में योजना आयोग द्वारा दो उपसमितियों का गठन एक सामाजिक कार्यक्रम और दूसरी अधोसंरचना विकास किया गया। नवम्बर 2004 में यूपीए सरकार (कांग्रेस समर्थित सरकार) द्वारा एनडीए द्वारा गठित समिति समूहों को  स्वीकृति दी गई। आगे चलकर दिसम्बर 2006 राष्ट्रीय विकास परिषद द्वारा 11 वीं पंचवर्षीय योजना 2007-12 में स्वीकृत जिसमें शिक्षा की योजना को पीपीपी मॉड के नाम से प्रचारित किया गया।

सितम्बर 2007 में पी एम मनमोहन सिंह द्वारा योजना आयोग की बैठक में शिक्षा में पीपीपी की निर्णायक भूमिका का एलान किया तथा सितम्बर 2009 में मानव संसाधन विकास मंत्रालय द्वारा नीतिगत निर्णय के लिए पीपीपी मॉड के निर्णय को सलाह मशविरा के लिए भेजा। 2011 में वित्त मन्त्रालय द्वारा ड्राफ्ट नेशनल पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप पॉलिसी नामक दस्तावेज जारी किए गए। सीएमराइज (CM Rise) योजना के तहत छोटे स्कूल बन्द कर बड़े स्कूल जो 10 से 15 किलोमीटर में रहेंगे बाकी जगह प्रायवेट स्कूलों को खोलने का मौका देना है।

अब 2020 में नई शिक्षा नीति में शिक्षा  सरकारी हस्तक्षेप से मुक्त कर दी है। इसका सीधा मतलब है शिक्षा का बाजारीकरण या व्यापारीकरण हो रहा है। मनुवादी सरकार ने सबसे पहले शिक्षा बजट में भारी कटौती की ताकि कम संख्या में गरीब बच्चे उच्च शैक्षणिक संस्थानों में पढ़ सकें। दूसरे शिक्षा संस्थानों को निजी हाथों में सौंपने की मुहिम के साथ बहुत से सरकारी स्कूलों को बंद करने का निर्णय लिया। अखबारों की रपट के मुताबिक लगभग 90%स्कूल बंद करने वाली है मध्यप्रदेश की सरकार।

अब ऐसी विकट स्थिति में यहां यह आवश्यक हो जाता है। इसकी लड़ाई ना केवल पीड़ित शिक्षकों को लड़नी चाहिए बल्कि इसमें उन अभिभावकों को भी शामिल करना होगा। जिनके बच्चे प्रभावित सरकारी स्कूलों में नि:शुल्क पढ़ते हैं। साथ ही साथ एकजुटता के साथ  शिक्षा के व्यवसायीकरण, व्यापारीकरण या बाजारीकरण पर अंकुश लगाने के लिए निजीकरण की समर्थक सरकार का पुरजोर विरोध करें। यदि  शिक्षक , विद्यार्थी और अभिभावक तीनों को साथ लेकर  उनके हितों की रक्षा के लिए एक समग्र कार्यक्रम बनाकर जिला तथा ग्राम संयंत्र पर आम जन को लेकर संघर्ष करें तो कुछ उम्मीद जगती है। आमतौर पर नौकरी जाने का भय उन्हें डराता है । लेकिन यदि सब  संगठित होकर लड़ें तो यह समस्या बाद में सुलझ जाती है।

सुसंस्कृति परिहार लेखक एवं स्तंभकार हैं

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