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मृत्युभोज एक अभिशाप : इसे कब बंद करेगा चड़ार समाज

तुलाराम अठ्या

लोगो का सवाल है कि मौत होने पर खुशी मनाए या मातम ? बिल्कुल सच्चाई है,क्योकि ये समझ नही आ रहा कि खुशी किस बात पर मनाई जा रही है। जहाँ बैठकर कोई एक जन अपने के बिछुड़ जाने के दुख में आंसू बहा रहा है। फिर उसी घड़ी में जो भी खर्च पीड़ित परिवार कर रहा है, वो सिर्फ इसलिए क्योकि उसे डर है कि “लोग क्या कहेंगे”?

कर्ज हो जाता है !

इसके लिए आप पिछले 1 साल में जिन्होंने मृत्युभोज किया, उनके घर जाओ.आप पाओगे कि उन्होने हर प्रकार के नियमित खर्च को बंद कर दिया। अब सब्जी कम आती है,अब बच्चों पर खर्च कम हो गया, पिछले 6 माह से बच्चों की फीस नही भर पाए होंगे। उन्होंने छोटी मोटी बीमारी होने पर डॉक्टर को दिखाना बन्द कर दिया। ये जो “गया” उनकी याद में नही, बल्कि जो समाज के मुखिया बैठे है, उनके डर से किया है। क्योंकि उस परिवार को खोफ था कि ‘लोग क्या कहेंगे?’

सम्पति बिकती है !
दूसरे कर्ज को तो कुछ दिन न दे पाते तो चिंता नही होती,क्योंकि अधिकतर कर्ज जान बूझकर या प्लान से किये होते है. जिसको नही चुकाने पर ब्याज लग जायेगा। लेकिन मृत्यु भोज का कर्ज समय पर नही दे पाने पर ब्याज से भयावह मांगने वाले के तानो का डर लगता है.उसके ताने सुनकर “लोग क्या कहेंगे” ये ज्यादा डरावना होता है.

जीते जी नही बोलते पर…!
ऐसी औलाद को मृत्यु भोज करते देखा है,जो जीते जी माँ या बाप के हाल पूछने नही गए थे.उनसे इतना गुस्सा था कि देखते ही काटने को दौड़ते थे,लेकिन माँ या बाप के जाने पर दहाड़े मार कर रोना औऱ उनको स्वर्ग तक पहुंचाने में कोई कसर नही छोड़ते.यदि वो बेटा रसूखदार है तो फिर मृत्युभोज करते हुए आगन्तुको से उम्मीद करते है कि लोग वाह वाही करते हुए जाए.भले ही माँ-बाप कराहते हुए गए हो.डर जन्म दाता का नही बल्कि लोगो का है क्योंकि वो सोचता है कि “लोग क्या कहेंगे ” उसके रुतबे में कोई कमी न आ जाये।।

जिनके पास दवा के पैसे नही, उन्होंने बड़े खर्च किये!

एक गांव में एक बुढ़िया के मैं घर गया, वो बिल्कुल अंतिम दिनों में थी, चल नही पा रही थी और स्वयं शौच आदि के नित्यकर्म के लिए बेटे और बहू पर निर्भर थी। एकमात्र बेटे ने खाट के कुछ हिस्से को काट कर नीचे बर्तन लगा दिया ताकि शौच के लिए उसे स्वयं आकर माँ को सम्भलना न पड़े। मैने अम्मा से पूछा तो बताया कि दर्द बहुत है,यदि कोई दर्द का इंजेक्शन लग जाये तो जिंदगी के ये दिन आराम से गुजर जाए। ये सवाल मैंने उसके बेटे के सामने रखा,तो बेटा बोला कि आज जेब मे पैसे नही है। कल तक जुगाड़ करके ले जाऊंगा। मेरे भी हाल अच्छे नही थे,पर 500 रुपये दिए तो उन अम्माजी को दवा, इंजेक्शन मिला। तीन दिन बाद मां ने इस दुनिया को अलविदा बोल दिया।अब बेटे के पास लाखो रुपये आ गए। उसने 12 गांव बुलाकर बड़ा मृत्युभोज किया। लोगो ने मां की आह तो नही महसूस की पर ये जरूर बोला कि मां के लिए कितना अच्छा खर्च किया।।

कच्ची उम्र की मौत पर भी !

एक गांव में दुर्घटना हुई, उसमे कच्ची उम्र का एक लड़का खत्म हो गया। उसकी बॉडी आंगन में रखी थी और गांव के बुजुर्ग सुबह से ही सांत्वना देने के लिए जुटने लगे। हर कोई गमगीन था, कोई शब्द नही मिल रहा था,जिससे उस परिवार को सांत्वना दी जाए। मैंने आंगन में गिरे खून को फावड़े से खरोंच कर प्लास्टिक की थैली में डाला ताकि घर मे उसे देखकर परिजनों को ज्यादा तकलीफ न हो।
12 बजे उसका अंतिम संस्कार हुआ। लोग जुटे ओर पुछने लगे कि घर मे कुछ लाया हुआ है या लाना पडेगा ? मैं कल्पना ही नही कर पा रहा था कि जंहा से अभी 1 घण्टे पहले खून को इक्कट्ठा किया,उसी जगह डोडा(पोस्त) की मनुहार चालू हो गयी। समाज के बहुत वरिष्ठ और खुद को पंच कहे जाने वाले लोग यह सब बात मेरे सामने करने करने लगे तो मुझे बोलना/लड़ना पड़ा। मुझे तब डर नही आया कि ” लोग क्या कहेंगे ?”

तर्क की कसौटी पर कुछ रिवाजो को तौलना होगा,कुछ लोगो को लगेगा कि ये चर्चा का मुद्दा नही है,क्योंकि माँ या बाप के लिए कुछ नही करेंगे तो किसके लिए करेंगे ? आपका सही कहना है कि उनके लिए कुछ नही करेंगे तो किसके लिए । लेकिन तब करो जब वो देख रहे हो। जब वो जिंदा हो।। जब उस हलवे पूड़ी का स्वाद कौवे को नही खुद के माँ बाप को मिले।

खर्चा हो, पैसे लगे,जश्न मनाए जाए। लेकिन उनके जिंदा रहते उनके लिए ही। लोग क्या कहेंगे, ये न देखते हुए ऐसा नजरिया बने की मेरे मां बाप क्या सोच रहे और उनको क्या लगेगा।तर्क हमे सही और गलत में फर्क करता है।जो हमे मृत्युभोज के मुद्दे पर भी करना चाहिए।

पिछले कुछ दिनों से समाज के विभिन्न मंचों पर मृत्युभोज को बंद करने के लंबे लंबे भाषण दिए जाते हैं। विभिन्न सोशल मीडिया के मंचो पर मृत्युभोज बंद करने के लिए प्रचार किया जाता है।  लेकिन मंचों और सोशल मिडिया पर प्रचार करने वाले कथित समाज के नेता मृत्युभोज की पंक्ति में सबसे आगे बैठे पकवानों का स्वाद लेते नजर आते हैं । हमने तो यहाँ तक देखा कि समाज के नेता मृत्युभोज बंद करने की शपथ के फोटो सोशल मिडिया में शेयर करते हैं और वहीं पंगत में आगे नजर आते हैं।

समाज सुधार की बात करने वाले कथित समाज सुधारक जो इसका कई सार्वजनिक मंचो एवम व्यक्तिगत रूप से विरोध तो करते है। किंतु जब समय आता है इसे जमीनी रूप से स्वयं पर या समाज पर लागू करने का तो इस कुरीति को कम करने के बजाय इसे कई गुना विस्तृत कर लेते है,,,! ये सोचने वाली बात है। आखिर हम क्यों इस कुरीति को एक विस्तृत रूप देने में लगे है,,,?  क्यों हम इसका बढ़ चढ़कर आयोजन करने में लगे है,,,!

इसे एक आयोजन के रूप में ही तो मनाने में लगे है और एक दूसरे से होंडा-होड़ी के चक्कर मे इसे इतना विकृत कर दिया है कि आज इसमे पूरा समाज फंस चुका है।

जानवर भी अपने किसी साथी के मरने पर मिलकर वियोग प्रकट करते हैं, परन्तु यहाँ किसी व्यक्ति के मरने पर उसके साथी, सगे-सम्बन्धी भोज करते हैं। मिठाईयाँ खाते हैं। किसी घर में खुशी का मौका हो, तो समझ आता है कि मिठाई बनाकर, खिलाकर खुशी का इजहार करें, खुशी जाहिर करें। लेकिन किसी व्यक्ति के मरने पर मिठाईयाँ परोसी जायें, खाई जायें, इस शर्मनाक परम्परा को मानवता की किस श्रेणी में रखें।

 

इस भोज के अलग-अलग तरीके हैं। कहीं पर यह एक ही दिन में किया जाता है। कहीं तीसरे दिन से शुरू होकर बारहवें-तेहरवें दिन तक चलता है। कहीं कहीं अंतिम संस्कार में शामिल होने वाले व्यक्तियों की सूची शमशान में ही बना ली जाती है कहीं-कहीं मोहल्ले के लोग, मित्र और रिश्तेदार भोज में शामिल होते हैं, कहीं गांव, तो कहीं पूरा क्षेत्र। तब यह हैसियत दिखाने का अवसर बन जाता है। आस-पास के कई गाँवों से ट्रेक्टर-ट्रोलियों में गिद्धों की भांति जनता इस घृणित भोज पर टूट पड़ती है। शिक्षित व्यक्ति भी इस भोज में बढ़-चढ़कर भाग लेते हैं। इससे समस्या और विकट हो जाती है, क्योंकि अशिक्षित लोगों के लिए इस कुरीति के पक्ष में तर्क जुटाने वाला पढ़ा-लिखा वकील खड़ा हो जाता है। मूल परम्परा क्या थी ? लेकिन जब हमने 80-90 वर्ष के बुज़ुर्गों से इस कुरीति के चलन के बारे में पूछा, तो चौंकाने वाले तथ्य सामने आये। उन्होंने बताया कि उनके जमाने में ऐसा नहीं था। रिश्तेदार ही घर पर मिलने आते थे। उन्हें पड़ोसी भोजन के लिए ले जाया करते थे। सादा भोजन करवा देते थे। मृत व्यक्ति के घर बारह दिन तक कोई भोजन नहीं बनता था। 13 वें दिन कुछ सादे क्रियाकर्म होते थे। शोक तोड़ दिया जाता था। बस। 12-13 वें दिन के बाद घर की शुद्धि और आत्मा की शांति के लिए कुछ क्रियाकर्मों का प्रावधान है। इस भारतीय परम्परा का अपना मनोवैज्ञानिक पहलू भी है। इस प्रकार की प्रक्रियाओं में उलझने और आने-जाने वालों के कारण परिवार को परिजन के बिछुड़ने का दर्द भूलने में मदद हो जाती है। मृत्युभोज का तमाशा लेकिन इधर तो परिजन के बिछुड़ने के साथ एक और दर्द जुड़ जाता है। मृत्युभोज के लिए 50 हजार से कई लाख रुपये तक का साधारण इन्तज़ाम करने का दर्द। ऐसा नहीं करो तो समाज में इज्जत नहीं बचे। क्या गजब पैमाने बनाये हैं, हमने इज्जत के? अपने परिवार को बर्बाद करके इज्जत पाने का पैमाना। कपड़ों का लेन-देन भी ऐसे अवसरों पर जमकर होता है। कपड़े, केवल दिखाने के, पहनने लायक नहीं। बरबादी का ऐसा नंगा नाच, जिस समाज में चल रहा हो, वहाँ पर पूँजी कहाँ बचेगी, उत्पादन कैसे बढ़ेगा, बच्चे कैसे पढ़ेंगे?

इस सामाजिक कुरीति को प्रायोजित करने में भू-माफिया, ब्याज-माफिया भी संगठित होकर आगे आते हैं। अपने-अपने समाज के ठेकेदार बनकर ये माफिया, मृत्युभोज की कुरीति को आगे बढ़ाते हैं। इसे पक्का करने के लिए उनके स्वयं के परिजनों की मौत पर बढ़-चढ़ कर खर्च करते हैं, ताकि मध्यम और निम्र वर्ग इसे आवश्यक परम्परा मानकर चलता रहे। अजीब लगता है जब यह देखते हैं कि जवान मौतों पर भी समाज के लोग मिठाईयाँ उड़ा रहे होते हैं। लोग शर्म नहीं करते, जब जवान बाप या माँ के मरने पर उनके बच्चे अनाथ होकर, सिर मुंडाये आस-पास घूम रहे होते हैं। और समाज के प्रतिष्ठित लोग उस परिवार की मदद करने के स्थान पर भोज कर रहे होते हैं।

उन्हें नहीं पता कि एक मृत्युभोज, किसी भी परिवार की आर्थिक स्थिति को अंदर तक हिला देता है। गाँवों और क़स्बों की इस कड़वी सच्चाई का या तो उन्हें बोध नहीं है और या फिर वे कुछ नहीं कर पाने के कारण मौन धारण कर बैठ गये हैं। इसके आर्थिक दुष्परिणामों के बारे में अभी ठीक से सोचा नहीं गया है। अब देखिये, वह परिवार क्या बालिका शिक्षा की सोचेगा, जो ऐसी कुरीतियों के कारण कर्जे में डूब गया है। वोटों के लालच ऐसे मृत्युभोजों में नेता-अफसर स्वयं भाग भी लेते रहते हैं।

माँ-बाप जीवन भर हमारे लिए कमाकर गये हैं, तो उनके लिए हम कुछ नहीं करें क्या? इस पहले कुतर्क से हमें भावुक करने की कोशिश होती है। हकीकत तो यह है कि आजकल अधिकांश माँ-बाप कर्ज ही छोड़ कर जा रहे हैं। उनकी जीवन भर की कमाई भी तो कुरीतियों और दिखावे की भेंट चढ़ गयी। फिर अगर कुछ पैसा उन्होंने हमारे लिए रखा भी है, तो यह उनका फर्ज था। हम यही कर सकते हैं कि जीते जी उनकी सेवा कर लें। लेकिन जीते जी तो हम उनसे ठीक से बात नहीं करते। वे खोंसते रहते हैं, हम उठकर दवाई नहीं दे पाते हैं। अचरज होता है कि वही लोग बड़ा मृत्युभोज या दिखावा करते हैं, जिनके माँ-बाप जीवन भर तिरस्कृत रहे। खैर! चलिए, अगर माँ-बाप ने हमारे लिए कमाया है, तो उनकी याद में हम कई जनहित के कार्य कर सकते हैं, पुण्य कर सकते हैं। जरूरतमंदो की मदद कर दें, अस्पताल-स्कूल के कमरे बना दें, पेड़ लगा दें। बहुत कार्य हैं करने के। परन्तु हट्टे-कट्टे लोगों को भोजन करवाने से उनकी आत्मा को क्या आराम मिलेगा? जीवन भर जो ठीक से खाना नहीं खा पाये, उनके घर में इस तरह की दावत उड़ेगी, तो उनकी आत्मा पर क्या बीतेगी? या फिर अपने क्रियाकर्म के लिए अपनी औलादों को कर्ज लेते, खेत बेचते देखेंगे, तो कैसी शान्ति अनुभव करेंगे? जो जमीन जीवन में बचाई, उनके मरने पर बिक गयी, तो क्या आत्मा ठण्डी हो जायेगी? दूसरा तर्क  क्या घर आये मेहमानों को भूखा ही भेज दें? पहली बात को शोक प्रकट करने आने वाले रिश्तेदार और मित्र, मेहमान नहीं होते हैं। उनको भी सोचना चाहिये कि शोक संतृप्त परिवार को और दुखी क्यों करें? अब तो साधन भी बहुत हैं। सुबह से शाम तक वापिस अपने घर पहुँचा जा सकता है। इस घिसे-पिटे तर्क को किनारे रख दें। मेहमाननवाजी आडे दिन भी की जा सकती है, मौत पर मनुहार की जरूरत नहीं है। बेहतर यही होगा कि हम जब शोक प्रकट करने जायें, तो खुद ही भोजन या अन्य मनुहार को नकार दें। समस्या ही खत्म हो जायेगी।  इनसानियत पहले से ही इस कृत्य पर शर्मिंदा है, और न करो। किसी व्यक्ति के मरने पर उसके घर पर जाकर भोजन करना वाकई में निंदनीय है और अब इतनी पढ़ाई-लिखाई के बाद तो यह चीज प्रत्येक समझदार व्यक्ति को मान लेनी चाहिए। गाँव और क़स्बों में गिद्धों की तरह मृत व्यक्तियों के घरों पर मिठाईयों पर टूट पड़ते लोगों की तस्वीरें अब दिखाई नहीं देनी चाहिए।

समाज के जागरूक सदस्यों को समाज में व्याप्त मृत्युभोज कुरीति है का जोरदार ढंग से विरोध एवम बहिष्कार करना आवश्यक है। इस कुरीति का सामाजिक स्तर पर समाधान कर सीमित किया जाना चाहिए। ताकि यह कुरीति, कुरीति न रहकर एक आदर्श संस्कार हो।

अगर सिर्फ 1 जन,,,,! मतलब स्वयं यानी हर वह व्यक्ति जो इस समाज मे है और इस सामाजिक कुरीति को एक आदर्श संस्कार बनाना चाहता है वो एक व्यक्ति जो की वो स्वयं है, अपने आप को बदल लें और इस आदर्श कार्य की ओर सच्चे मन से अग्रसर हो जाये तो समाज में बदलाव हो सकता है।

तुलाराम अठ्या  सामाजिक कार्यकर्ता है एवं समाज के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं

 

 

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